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छठा परिच्छेद
१४९ 'वहीं कोई व्यवसाय कर जीवनके शेष दिन शान्तिपूर्वक • च्यतीत करने चाहिये। • यह विचार कर मैंने स्वदेशके लिये प्रस्थान किया, परन्तु दैवदुर्विपाकसे मेरा जहाज टूट गया। इससे न केवल मेरा वह धन ही नष्ट हो गया, बल्कि मेरी जानके भी लाले पड़ गये। खैर, अभी जिन्दगी बाकी थी, इसलिये लकड़ीका एक तख्ता मेरे हाथ लग गया और मैं उसीके सहारे तैरता हुआ सात दिनमें उदम्बरावतीवेल नामक स्थानमें किनारे आ लगा।
उदम्बरावतीवेलसे मैं किसी तरह राजपुर नगरमें • गया। वहाँ नगरके बाहर एक आश्रममें मुझे दिनकर
अम नामक एक त्रिदण्डी स्वामीके दर्शन हुए। उसे मैंने . अपना सारा हाल कह सुनाया। उसने मुझ पर दया कर मुझेखानेके लिये अन्न और सोनेके लिये स्थान दिया।
मैं उसीके यहाँ रहकर अपना सारा समय उसीकी सेवामें • जिताने लगा। .. '..., एक दिन उस 'त्रिदण्डीने कहा:-'हे वत्स ! * मालूम होता है कि तुम धनार्थी हो-'तुम्हें धनकी