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________________ १४८ , नेमिनाथ-चरित्र एक मित्र भी रहता था। मैंने उसीके यहाँ जाकर आश्रय ग्रहण किया। वह मेरी दुरावस्था देखकर बहुतही दुःखी हुआ। समुचित स्वागत-सत्कार करनेके बाद उसने, मुझे वहीं व्यवसाय करने की सलाह दी। मैंने उसकी आर्थिक सहायतासे उसकी इच्छानुसार कार्य शुरू किया और थोड़े ही दिनमें सब खर्च वाद देकर मुझे लाख रुपयेका मुनाफा हुआ। ___ यह रुपये हाथमें आने पर मुझे किराना लेकर समुद्र यात्रा करने की सूझी। सुरेन्द्रको यह बात पसन्द न आयी और उसने मुझे बहुत मना किया, किन्तु मैंने, उसकी एक न सुनी। शीघ्रही मैंने किरानेसे एक जहाज भरकर समुद्रमार्ग द्वारा विदेशके लिये प्रस्थान करदिया। कुछ दिनोंके बाद मैं यमुना नामक द्वीपमें जा पहुंचा। उस द्वीपके कई नगरोंमें घूम-घूम कर मैंने वह किराना बेच दिया। इसमें मुझे बहुत अधिक लाभ हुआ। थोड़े दिन इसी तरह उलट फेर करने पर मेरे पास आठ करोड़ रुपये इकट्ठे हो गये। यह कोई साधारण रकम न थी। मैंने सोचा कि अब अपने देशको चलना चाहिये और
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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