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छठा परिच्छेद पहले ही नष्ट कर दी थी। केवल मेरी स्त्रीके पास कुछ आभूषण थे। उन्हें लेकर मैं व्यापार निमित्त अपने मामाके साथ उशीरवति नगरकी ओर चल पड़ा। वहाँ मैंने उन आभूषणोंसे कपास खरीद ली, क्योंकि उसमें मुझे अच्छा मुनाफा होनेकी उम्मीद थी। ..' यह कपास लेकर मैंने अपने मामाके साथ ताम्रलिप्ति नगरकी ओर प्रस्थान किया। परन्तु मार्गमें मेरी कपासमें आग लग जानेसे वह देखते ही देखते खाक हो गयी। अब मेरे पास कोई ऐसा धन भी न था, जिससे मैं कोई व्यापार कर सकूँ। मेरे मामाने भी मुझे अभागा समझ कर मेरा साथ छोड़ दिया। मैं इससे निराश न हुआ
और अकेला ही घोड़े पर बैठ पश्चिम की ओर आगे बढ़ा। दुर्भाग्यवश रास्तेमें मेरा वह घोड़ा भी मर गया। अब पैदल चलनेके सिवा कोई दूसरा उपाय न था। इसलिये कुछ दिनोंके बाद मैं धीरे-धीरे चलकर प्रियंगुपुर ' नामक एक नगरमें जा पहुंचा।
प्रियंगुपुरमें वणिकोंकी अच्छी बस्तीथी, वे तरह-तरहेका व्यवसाय करते थे। वहाँ सुरेन्द्रदत्त नामक मेरे पिताका'