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जयं चरे, जयं चिठ्ठ, जयं मासे जयं सए, जय भुजन्तो, भासन्तो, पाव-कम्गं न बधाइ।।
दश. ४॥८॥ प्राप्मान ! जतना सूचालो, जनना सूउभा रैवी, जतना सूबैठो, जतना सू सूवो, जतना तूं खायो, अर जतना सू बोलो। इण भांत पाप करम नी वंधे।
न य पावपरितक्षेत्री, न य मित्ते सु कुप्पई। अप्पियस्तावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासह ।।
उत्त० ११।१२। मुशिक्षित मिनख स्खलना हबरण पर भी किरणी पर दोपारोपण नी कर पर नी कदै मित्र पर किरोच करै। दो अप्रिय मित्र री परोल मे पण प्रशंमा करें।
चत्तारि अवाणिज्जा पप्णता, तंजहा अविणीए विगइ पडिबद्ध, अविउसविय पाहुडे मायी।
स्था० ४१३६३३६॥ अंचार मिनख शिक्षा देवरण र लायक नी हुने-अविनीत, सुत्रादवृत्ति में गृद्ध, किरोधी अर कपटी।
२०. मनुष्य-जनम चत्तारि परभंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। मगुसत्तं सुई सद्धा, संजमाम्मि य वीरियं ।।
उत्त० ३१ इण संसार में प्राणियां खातर चार अंग घणा दुरलभ हैमिनखपणो, धरम-श्रवण, सरधा पर संयम में पुरुपारथ । चतुहिठाणेहिं जीवा माणुसत्ताए कम्म पगरेति
पगइ भद्दयाए, पगइ विरणीययाए, सारगुक्कोसयाए, अमच्छरियाए ।
स्था०४/४