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विनी होती है
दोनों राजा - जानन है इक एक कर བྷ།ཝཱཏྭཱ ཡ། ཝཙ ཝཱ ཝཱདེ (परदे के पीछे )
उन्कै बले सहदे
रामचन्द्र की वह ऋषि लोनी जानकी,
ནཱ ཁཿ ཝིཝཱ ༐
लोगों को करनी है ।
दाय के लौह विनयमित करत प्रका
जब जब तब पति और हसाको तय त्राला || चत्रियकुलतिरमौरनारि मिथिलेश कुमारी । पूजा मन मनध्याय क नवी तुम्हारी राम- बाप हो आप ) हम तो चाहते है कि यह राक्षसों उनकी जड़ खोदने का पहुंचे।
दोनों ऋषि- आप लोगों के मनोरथ पूरे हों। (लटते है परशु० - महालता लोग जमवृद्धि का लड़का प्रयास करता बलि और विश्वा०-
रहे शान्त तक विश्च तहि पूरन जोतिप्रकास | छोड़ें मन को वृत्ति न संपवितास ( राम और परशुराम को छोड़ लब बाहर जाते हैं ) परशु०- (थोड़ी दूर चलकर ) भैया रामचन्द्र यहाँ तो मा राम - ( पास जाके ) कहिये का आज्ञा है ।
परशु० - धारसों को दण्ड में हवि जय इत्रसमाज | सो यहि अवसर हैं गयो वित कारन वेकाज ॥
परशु का काम ईंधन काटने का है सो रहेगा ।
पावन नदी तीर दंडकवन | रहत करन हित तप जो सुनिगन || विचरत फिरत लङ्क सन आवत । पापी निशिचर विनहि सतावत