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पाबीन नाटक मणिमाला
हुन प्रया।
(सबदिमान पर बैठते है । लीला--- नालापहम लोग अब नहीं लेंगे। सल्यानमाली, रघुकुल की राजधानी अयोध्या को। लीना-तो क्या बनमाल के दिन पूरे हो गये। मुलगा--आज ही एक दिन और है।
बिमान चलता है सब बाहर जाते है।
दूपर स्थान-शाकाश विमान पर बैठे हुए रस लीता लत नावादि पाते हैं।
लोना. नरज आर्यपुत्र यह कौन सा देश दक्खिन की ओर बहुर दूर तक फैला हुआ है और नोला सा देख
भाम-हानी बह पृथ्वो का देश नहीं है परन्तु,
पाहिली ही वृषकेतु को मूरति परम लखात !
यह सागर, महिमा अगम जासुन जानी जात सीता-वही जो हम बुढ़ियों से सुनते आये हैं कि हमारे लसुरों ने बनाया था। इसके बीच में यह सा देख पड़ता है जो नई घास पर उजाली चादर साबिधा हुआ है।
लक्ष्मण-भाभी, জান স্বাস্থ ক ম ব ল সুন্নি লু ক্লাহ ম হ রাখ। यह रच्या लेनु बिलाल दानरबोर पाथर लाय कै। यहि मानि हैं प्रादर सहित नित लोग सब संसार में । जयस लम प्रभुचरित कर लखि परत सिन्धु अपार में। राम---(उगली दिवा कर) या,
पहिचानौ यह भूमि कुन जह अमित निहारे। धन तमाल की कोह बीच सीतल अंधियारे ।। मलयाचल सन् गिरत इहां भिरने बहुतेरे । मर तडागन माहि नोर निर्मल तिन केरे।