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महावीरचरितमा
काटे जल कौतुकी दिलवल कोटेड
सोस इकल और नलकुमार के। ज्ञानत अनेक एक एक के ठिकाने देगि !
दूजे के प्रभावबाहि गेवर विचार के देखन हैं लौह जायला ला विचिन्न ।
तर देत विते माहल मार के । घरको न पोरन घटत न उता भूप।
काटनेई जातील वान बनसार के परदे के पोछे भया कामचन्द्र का इल पापी का खेला रहे हो जो एक तनिक सी बात से निपर जाय इसके लिये इतना बखेड़ा क्यों करते हो। समझ तो लो,
आप सीय, नि(लोक लोगान सुखसनुदाई : यह निज अमर सरूप लंक यहि कर शुभाई। परम जोति जिन ज्ञाननन सन र निहारी।
पाबैं सो मुनि शान्ति एक ही बाल तुम्हारी चित्र:-(सुन के) देव ऋषि भी इन दोनों को मारने के लिधे राम लक्ष्मण से कहते हैं कि देर न करो । दुध का मारना किसको अच्छा नहीं लगता। (घबराहट से देख के हर से देवराजदेखिये
धारि ब्रह्मरित्र बान दोड और चलाये। जन अह सबननादविर काटि गिराये !! राक्षसह गिलो पीछे पुनि राक्षसनाटी।
देड धिसिर दृष्टि नुनि देवन डारी इन्द्र--(नेपश्य की सोर देख कर धर्मराज यह देखो दीनों लोक के दैरीरावन का मार जाना सुनार महरि लोग फले नहीं समाते. किसी बड़े उत्सव मानने के लिये मुझे बुला रहे हैं। तो मैं अब वलकर इन का मनोरथ पूरा कर, और तुम भी यह वृशाल सुनाके हमारे मित्र अलकेनर को सुन हो!
(दोनों बाहर जाते हैं।