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संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है। इन कविताओं की रचना के माध्यम से कवि जैसे इस धारणा का उन्मूलन करता है कि खड़ी बोली में संस्कार के परिष्कार की न्यूनता है। 'अनामिका' में ही 'राम की शक्ति-पूजा' है, जिसके लम्बे, सुगठित, रचना-विधान में खडी-बोली पर आधारित काव्य-भाषा की अभूतपूर्व व्यंजना क्षमता उद्घाटित हुई है। रचानात्मक काव्य-व्यक्तित्व भाषा के कितने स्रोतों को उन्मुक्त कर सकता हैं। यह 'राम की शक्ति पूजा' में देखा जा सकता है:
"रवि हुआ अस्तः ज्योति के पत्र पर लिखा अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर आज का, तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर वेग-प्रखर, शतःशेल सम्बरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर प्रतिपल-परिवर्तित-व्यूह-भेद-कौशल-समूह
वारित–सौमित्र-भल्लपति-अगणित-मल्ल-रोध, गर्जित–प्रलयाब्धि-क्षुब्ध-हनुमत्-केवल-प्रबोध, उद्गीरित-बहिन-भीम-पर्वत-कवि-चतुःप्रहर
जानकी-भीरू-उर-आशाभर,-रावण-सम्वर" 'अनामिका' की कुछ कविताओं की रचना के साथ निराला दोहरे शिल्प के प्रणेता के रूप में सामने आते हैं। 'दान' 'बनबेला' और 'सरोज-स्मृति' में क्लैसिकल और यथार्थ-परक शिल्प की सह-विन्यस्ति हुई है- खासतौर से 'सरोज-स्मृति' जैसी शोक-गीति का दोहरा रचना-विधान, तत्सम एवं तद्भव पर आधारित भाषिक संरचना स्पृहणीय है:
"धीरे-धीरे फिर बढ़ा चरण,
1. 'द्वितीय अनामिका': राम की शक्ति पूजाः सम्पादक नन्द किशोर नवलःपृष्ठ-329: निराला
रचनावली भाग एक |
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