________________
इसी संग्रह की विषम मातृक्त छन्द में "प्रणीत', 'बादल राग' कविता खड़ी बोली पर आधारित काव्य-भाषा के अनुपम स्वर-विस्तार एवं नाद योजना की संभावना को उद्घाटित करती हैं, इस कविता में सब्य-साची अर्जुन के रूप में परिकल्पित बादल का सेवारत कर्मठ-जीवन विशेष प्रवणता के साथ मुखरित हुआ है। यद्यपि मुक्त छन्द की शुरूआत करने वाली 'जूही की कली', 'जागृति में', 'सुप्ति थी', 'शेफालिका' आदि कविताएँ सौन्दर्य-प्रणय के विविध रूपों को हिन्दी काव्य के सन्दर्भ में नया आयाम देती हैं। किन्तु इनमें वस्तु संवेदना के प्रति वैयक्तिक प्रतिक्रिया व्यक्त करने की प्रवृत्ति है। किसी बँधी-बँधायी लीक पर चलने का आग्रह नहीं -
"विजय-वन-बल्लरी पर सोती थी सुहाग-भरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न अमल-कोमल-तनु तरूणी-जुही की कली, दृग बन्द किये, शिथिल-पत्रांक में बासन्ती निशा थी; विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़ किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते है मलयानिल।" कविता के औदात्य और संगीत की माधुरी का समन्वय :
'परिमल' के बाद 'गीतिका' (1936) के रूप में कवि का तीसरा काव्य संकलन प्रकाशित हुआ । जो छायावादी काव्य भाषा के और निखरने का संकेत देता है। 'गीतिका' में कवि ने संगीत व कविता को एक धरातल पर मिलाने की चेष्टा की है। कविता को संगीत से जोड़ने का एक सफल प्रयास निराला जी ने किया है। संगीत
-
1. 'जूही की कली' परिमलः निराला रचनावली भाव(1) सम्पादक-नन्द किशोर नवलः
32