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बाल्य की केलियों का प्राङ्गण। कर-पार कुजं-तारूण्य सुघर; आयी, लावण्य भार थर-थर काँपा कोमलता पर सस्वर;
ज्यों मालकौश नव वीणा पर।" यहाँ ज्यों मालकौश नव-वीणा पर यौवन के प्रथमागमन का बिम्ब है, नव-वीणा स्वयं युवती है जो स्पर्श भाव से झंकृत हो सकती है। मालकौश की तरह यौवन अनुभूतियात्मक है।
'नूपुर के सूर मन्द रहे' शीर्षक कविता मानवीकरण और पद-मैत्री का सुन्दर उदाहरण है।
"नूपुर के सुर मन्द रहे जब न चरण स्वछन्द रहे।
नयनों के ही साथ फिरे वे; मेरे घेरे नहीं घिरे वे, तुमसे चल तुममें ही पहुँचे;
जितने रस आनन्द रहे।"2 यहाँ नूपुर की स्वछन्दता से छन्द की स्वछन्दता को बाँधा गया है, यहाँ नूपुर का मानवीकरण है नूपुर-सुर, छन्द बन्द में पद-मैत्री है। जिस प्रकार पैरों के न चलने पर पैजनी की ध्वनि बन्द हो जाती है उसी प्रकार छन्दों से कविता को बँध जाने पर कविता की स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है। यहा नायिका की नायक के प्रति प्रथम हँसी को पूर्णमासी के निर्मल रात्रि के बिम्ब से बाँधा
1. सरोज-स्मृति : निराला रचनावली भाग एक : पृष्ठ - 319 2. नूपुर के सुर मन्द रहे : निराला रचनावली भाग दो : पृष्ठ - 67
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