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कवि निराला ने गरीबी को नजदीक से देख था। कवि ने यहाँ पर एक भूखे प्यासे भिक्षुक का मार्मिक चित्र खींचा है। कवि निराला का 'भिक्षुक' मुट्ठी-भर अनाज की प्राप्ति के लिए किस प्रकार की दर-दर की ठोकरें खाता है एवं जन-मानस का अपमान सहता है, साथ ही साथ वह अपने पूर्वजन्म को कोसता भी है। यहाँ भिक्षुक रूपक के रूप में प्रस्तुत हुआ है वह एक पात्र ही नहीं बल्कि पूरे आर्थिक-परिवेश से उपजा हुआ चरित्र भी है। जो कि समस्त सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था पर चोट करता है।
निराला की 'विधवा' कविता भी कुछ इसतरह सामाजिक व्यवस्था पर चोट करती हुई दिखाई देती है। भारतीय विधवा का यह रूप अन्यत्र शायद ही दिखाई देः
"वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी व दीप-शिखा सी शान्त भाव में लीन वह कूर-काल ताण्डव की स्मृति-रेखा-सी वह टूटे तरू की छटी लता सी दीन
दलित भारत की ही विधवा है।" निराला जी ने भारतीय विधवा को 'पूजा-सी' 'दीप-शिखा सी', 'स्मृति रेखा-सी' कहकर रूपक का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है।
भारतीय विधवा अपने आराध्यदेव पति के नाम पर इस प्रकार अपनापन छोड़े हुए पड़ी ही जैसे मन्दिर में देवता के सम्मुख पूजा की सामग्री पड़ी रहती है।
'सरोज-स्मृति' निराला के अप्रस्तुत की उदात्तता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
__ "धीरे-धीरे फिर बढ़ा चरण;
1. विधवा : निराला रचनावली भाग (1) : पृष्ठ - 72
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