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________________ हास हुआ है। निराला जी समाज के तथा कथित -शिक्षित वर्ग की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि: "हँसते है जड़वाद ग्रस्त प्रेत ज्यों परस्पर विकृत-नयन मुख कहते हुए अतीत मयंकर।" कवि भारतीय शिक्षित समाज पर जो अपने पूर्वजों की जंगली कहने तक का दुस्साहस करते हैं उन्हें कवि सांसारिक भौतिकवाद में फँसी हुई विकृति मानसिकता का प्रतीक बताता है। निराला जी डार्विन के विकासवाद पर तीखा व्यंग करते हुए कहते हैं कि इस चिन्तन के अनुसार मनुष्य बन्दर का बंशज है हमारे पूर्वज सर्वथा जंगली थे और हम कमशः अधिकाधिक सभ्य होते जा रहे हैं। निराला जी सम्भवतः यह कहना चाहते हैं कि: “We call our forefather's fools, wise as we grow, no double our children will callus so" 'सम्बोधन' : सम्बोधन अलंकार अत॑मन् को उद्घाटित करता है। इस अलंकार में कभी अमर्ष भाव, कभी आह्लाद, कभी आत्मग्लानि, कभी शंका, कभी लज्जा स्पष्ट होती है। कवि निराला सरस्वती –स्वरूपा भारत-माता की अपने अंतर्मन् में वन्दना करते हुए कहते है कि: भारति जय-विजय करे! कनक शस्य कमल धरे!' 1. भारती - वन्दना : अपरा : पृष्ठ -9 109
SR No.010401
Book TitleLonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPraveshkumar Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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