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विरह-व
हुए कहता है कि मेरा ह - दग्ध हृदय का ताप ही सूर्य की इन प्रवल किरणों में समा गया है जो अपने स्पर्श से ही प्राणियों को झुलसाती है। 'द' की आवृत्ति
अनुप्रास की झलक दिखाता है।
निराला जी अपनी प्रेयसी के माध्यम से लौकिक श्रृंगार संबंधी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं, साथ ही साथ एक चिर नव - यौवना नायिका के चित्र को उकेरा है:
"गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं ।
रूप के द्वार पर
मोह की माधुरी । 1
कवि ने अपने सम्पूर्ण कविता मे मनौवैज्ञानिक दृष्टिकोण को उद्घाटिक करता है कवि की नायिका कहती है कि शरीर रूपी वृक्ष के तारूण्य द्वारा घिर जाने पर मैं सुन्दरता से भरी हुई पल्लवित लता के समान हो गयी हूँ नायिका जीवन के तारूण्य के प्रथम पायदान पर पुण्य की तरह खिल गयी है उसी तरह जिस तरह बसन्तागमन के समय वृक्ष फूलों से लद जाते हैं; लेकिन इतना सब के होते हुए भी प्रेम के प्रवाह में निराला की नायिका अपना संयम बनाए रखती है। जब कि पुरूष उस सुन्दरता से वेसुध होकर बह जाते हैं । अर्थात् निराला की नायिका संयमशील, धैर्यशील एवं लज्जाशील है। तो नायक अपनी भावनाओं पर काबू पाने में असमर्थ । उपर्युक्त काव्य में 'ग' और 'म' की आवृत्ति का बार-बार होना अनुप्रास का दर्शन कराता है।
छायावादी कवियों ने काव्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अपेक्षा मानवीय दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया है कवि निराला स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हालांकि विज्ञान ने चहुमुखी विकास किया है। परन्तु मानव मन का उत्तरोत्तर
1. 'प्रेयसी' निराला रचनावली भाग (1) पृष्ठ - 328 ।।
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