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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
ही है । जबतक इन सबमें कर्तृत्वबुद्धि है, तबतक शुद्धात्माकी प्राप्ति होना असम्भव | शुद्ध आत्मा इन सबसे रहित पर है । उसीमें स्थित होना सच्ची आराधना है | कही जानेवाली शुद्धि या साधनासे शून्य शुद्धात्मस्वरूपमें जो स्थिति हैं, वही अमृतकुम्भ है । (स० ३०१-७)
१०. सर्वविशुद्धज्ञान
आत्माके कर्तृत्वका प्रकार - कोई भी द्रव्य, जिन विभिन्न गुणोंवाले परिणामोंके रूपमें परिणत होता है, उनसे भिन्न नहीं होता । जैसे सोना अपने कड़े आदि परिणामोंसे भिन्न नहीं है । इस प्रकार जीव और अजीवके जो परिणमन सूत्रशास्त्रमें बतलाये गये हैं, उनसे यह द्रव्य अभिन्न है । आत्मा किसी अन्य द्रव्यसे उत्पन्न नहीं हुआ है; अतएव वह किसी अन्यका कार्य नहीं है । इसी प्रकार वह अन्य किसीको उत्पन्न नहीं करता, अतएव वह किसीका कारण भी नहीं है । इस कारण वस्तुतः जीवको जड़ कर्मका कर्ता कहना संगत नहीं है । फिर भी हम देखते हैं कि कर्मके कारण कर्ता ( आत्मा ) विविध भावोंके रूपमें उत्पन्न होता है और कर्ता के भावोंके कारण कर्म ज्ञानावरणीय आदि रूपमें उत्पन्न होते हैं । इसके अतिरिक्त किसी दूसरे प्रकारसे उनकी सिद्धि नहीं हो सकती । इसका स्पष्टीकरण क्या है ?
करण ) – यह सब अमृतकुम्भ है और इससे विपरीत दशा विषकुम्भ है । परन्तु यहाँ पारमार्थिक दृष्टिका अवलम्बन करके प्रतिक्रमण आदिको farकुम्भ कहा है। क्योंकि जबतक इन सबमें कर्तृत्व की वुद्धि है, तबतक शुद्धात्म-स्वरूपकी प्राप्ति ही है । और जहाँ शुद्ध आत्म-स्वरूप नहीं है, वह स्थिति अमृतकुम्भ कैसे कही जा सकती ? हाँ, इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रतिक्रमण आदिकी भावश्यकता नहीं है। उनकी श्रावश्यकता तो है ही, परन्तु उन्हीं में कृतार्थता नहीं है। इस बातपर अधिक भार देनेके लिए मूही लमें इस प्रकारका कथन किया गया है ।