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पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु
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विवेक - जीव और वन्धके पृथक्-पृथक् लक्षण भलीभाँति जानकर, प्रज्ञारूपी छुरी-द्वारा उन्हें अलग-अलग करना चाहिए। तभी बन्ध छूटता है । बन्धको छेदकर त्याग करना चाहिए और आत्माको ग्रहण करना चाहिए । आत्माको किस प्रकार ग्रहण किया जा सकता है ? जैसे प्रज्ञा-द्वारा उसे अलग किया, उसी प्रकार प्रज्ञा द्वारा उसे ग्रहण करना चाहिए। जैसे - 'जो चेतन स्वरूप है, वह मैं हूँ, जो द्रष्टा है वह मैं हूँ, जो ज्ञाता है वह मैं हूँ; शेष सब भाव मुझसे भिन्न हैं ।' शुद्ध आत्माको जाननेवाला चतुर पुरुष समस्त भावोंको परकीय जान लेनेके पश्चात् उन्हें अपना कैसे मानेगा ? (स० २९४ - ३०० )
अमृतकुम्भ - जो मनुष्य चोरी आदि अपराध करता है, वह 'मुझे कोई पकड़ न ले' इस प्रकार शंकित होकर दुनियामें भटकता फिरता है । परन्तु जो अपराधी नहीं है वह निश्शंक हो जनपद में फिरता है । इसी प्रकार अगर मैं अपराधी होऊँगा तो पकड़ा जाऊँगा, बाँधा जाऊँगा, ऐसी शंका होती है, लेकिन अगर मैं निरपराध हूँ तो निर्भय हूँ। फिर मुझे पकड़नेवाला कोई नहीं है । संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित, आराधित, यह सब एकार्थक शब्द हैं । राध अर्थात् शुद्ध आत्माकी सिद्धि प्राप्ति । जिसमें यह नहीं है, वह आत्मा अपराध ( युक्त ) अर्थात् सापराध है । परन्तु जो निरपराध अथवा राधयुक्त है, वह निर्भय है । 'मैं शुद्ध आत्मा हूँ' इस प्रकारको निरन्तर प्रतीति होनेसे शुद्धात्मसिद्धि रूपी आराधना उसे सदैव - रहती है । शुद्धात्मसिद्धिसे रहित जो शुद्धि या साधना है, वह विषकुम्भ
१. व्यवहारसूत्र के अनुसार, प्रतिक्रमण ( कृत दोषोंका निराकरण ), प्रतिसरण ( सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरण ), प्रतिहरण ( मिथ्यात्व तथा रागादि दोषोंका निवारण ), धारणा (चित्तका स्थिरीकरण ), निवृत्ति ( विषय कषायसे चित्तका निवर्त्तन ) निन्दा ( आत्मसाक्षी से दोष - प्रकाशन ), गर्हा ( गुरुकी साक्षी से दोषका प्रकाशन) और शुद्धि ( प्रायश्चित्त आदि द्वारा विशुद्धो