________________
पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु यह सत्य है कि आत्मा प्रकृति ( कर्म और उनके फल ) के कारण विविध विभावोंके रूपमें उत्पन्न होता है और नष्ट होता है; इसी प्रकार प्रकृति भी आत्माके उन विभावोंके कारण ( ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंके रूपमें ) उत्पन्न होती है और नष्ट होती है । जबतक आत्मा अज्ञानके कारण प्रकृति और उसके फलमें अहं-मम-बुद्धिका त्याग नहीं करता, तबतक वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंयमी रहता है। तबतक उसे नवीन कर्मोंका बन्ध भी होता रहता है और उसका संसार बढ़ता जाता है । परन्तु जब विवेक-बुद्धि प्राप्त करके वह अनन्त कर्मफलोंमें अहं-मम-बुद्धि तज देता है, तब वह विमुक्त, ज्ञायक, दर्शक और मुनि ( संयत ) हो जाता है । ( स० ३०९-१५ )
अज्ञानी प्रकृति-स्वभावमें स्थित होकर कर्मफल भोगता है, परन्तु ज्ञानी उदयमें आये हुए कर्मफलको जानता है, भोगता नहीं है । साँप गुड़ मिला दूध प्रतिदिन पी करके भी जहरीला ही बना रहता है, इसी प्रकार अज्ञानी पुरुष भलीभाँति शास्त्रोंका पठन करता हुआ भी प्रकृतिको ( कर्म और कर्मफलको - तद्विषयक ममत्वको ) नहीं त्यागता। परन्तु निर्वेदयुक्त बना हुआ ज्ञानी कर्मके भले-बुरे अनेकविध फलको जानता है, मगर उसमें अहं-मम-बुद्धि स्थापित न करनेके कारण उन्हें भोगता नहीं है। जैसे नेत्र अच्छे-बुरे पदार्थ देखता है मगर देखने मात्रसे वह उनका कर्ताभोक्ता नहीं हो जाता, इसी प्रकार ज्ञानी भी बन्ध, मोक्ष, कर्मका उदय
और क्षय ( निर्जरा ) जानता है, परन्तु उनमें अहं-मम-बुद्धि न होनेके कारण उनका कर्ता-भोक्ता नहीं है। ( स० ३१६-२०) जिन्हें वस्तु-स्वरूपका भान नहीं है, ऐसे अज्ञ जन भले ही पर-पदार्थको अपना कहकर व्यवहार करें पर ज्ञानी तो जानता है कि उसमें परमाणु मात्र भी मेरा नहीं
१. मूलमें 'अर्थम्' है। प्रशानसे उसे
मानकर,- टीका।
और उसके परिणामको आत्म-स्वरूप