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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
यह सब शब्द एकार्थक समझने चाहिए। ( स० २७१ ) __ पारमार्थिक दृष्टि - इस प्रकार व्यवहारदृष्टिका परमार्थदृष्टिसे निषेध हो जाता है। जो मुनि पारमार्थिक दृष्टिका अवलम्बन करते हैं, वे निर्वाण पाते हैं । अगर कोई मनुष्य जिनेन्द्र भगवान्-द्वारा उपदिष्ट व्रत, समिति, गुप्ति, शील, तप आदिका आचरण करता हो, फिर भी मिथ्यादृष्टि
और अज्ञानी ही हो तो वह मुक्त नहीं हो सकता। शुद्धात्मस्वरूपपर जिसे श्रद्धा नहीं है और इसीलिए जिसे मोक्ष-तत्त्वपर भी श्रद्धा नहीं है, ऐसा अभव्य पुरुष, शास्त्रोंका चाहे जितना पाठ करे किन्तु इससे उसे कुछ भी लाभ नहीं होता। क्योंकि वह पुरुष काम-कामी है। वह धर्मपर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि आदि जो भी कुछ करता है वह भोगके निमित्त ही करता है, कर्मक्षयके निमित्त नहीं । व्यवहारदृष्टिसे आचारांग आदि शास्त्र, ज्ञान कहलाते हैं, जीवादि तत्त्व दर्शन कहलाते हैं और छह जीव-वर्गोंकी रक्षा करना चारित्र कहलाता है। परन्तु वास्तवमें आत्मा ही मेरा ज्ञान है, आत्मा ही मेरा दर्शन है और आत्मा ही मेरा चारित्र है; आत्मा ही मेरा प्रत्याख्यान ( त्याग ) है, आत्मा ही मेरा संवर है और आत्मा ही मेरा योग है । ( स० २७२-७ )
स्फटिक मणि परिणमनशील होनेपर भी अपने-आपसे ही लाल आदि रंगोंके रूपमें परिणत नहीं होती, अथवा अपने-आप ही लाल आदि रंगोंके रूपमें होनेवाली परिणतिका निमित्त नहीं होती। उसके पास कोई रंगीन वस्तु आती है तब उसका संसर्ग पाकर वह अपने शुद्ध स्वरूपसे च्युत होती है और उसी वस्तुके रंगकी हो जाती है। इसी प्रकार शुद्ध आत्मा स्वतः परिणमनशील होनेपर भी अपने-आप रागादि भावोंके रूपसे परिणत नहीं होता और न अपने-आप रागादि-परिणतिका निमित्त ही होता है; परन्तु परद्रव्य जो जड़कर्म है वह रागादि रूपमें परिणत होकर आत्माके रागादि भावोंका निमित्त होता है; और ( शुद्ध स्वभावसे च्युत हुआ अविवेकी) आत्मा रागादिभाव रूपमें परिणत होता है । आत्मा अपने-आपसे राग,