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पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु
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द्वेष, मोह या कषाय वगैरह भावोंको नहीं करता, अतएव वह उन भावोंका कर्ता नहीं है । जो विवेकी पुरुष स्व-स्वभावको जानता है, वह कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले भावोंको अपनेसे पर समझकर, तद्-रूप परिणमन नहीं करता - उन्हें अपना नहीं मानता । वह उनका मात्र ज्ञाता रहता है । परन्तु जो अज्ञानी रागादिको पर न मानकर आप रूप मानता है या तद्रूपमें परिणत होता है वह पुनः बन्धका पात्र होता है । अर्थात् जो आत्मा राग, द्वेष, कषाय आदि रूप जड़-कर्म उदय आनेपर स्वभावच्युत होकर उन कर्मोंके उदयसे होनेवाले रागादि भावोंको आप रूप ( आत्मासे अभिन्न ) मानकर तद्-रूप परिणत होता है वह फिर रागादि उत्पन्न करनेवाले जड़ कर्मोंसे बद्ध होता है । ( स० २७८-८२ )
आत्मा बन्धका कर्ता नहीं - इस विवेचनसे प्रतीत होगा कि कर्मबन्धका कारण रागादि है और रागादिका कारण वास्तवमें कर्मोंका उदय या परद्रव्य है; ज्ञानी आत्मा स्वयं नहीं । शास्त्रमें अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानके भाव और द्रव्यके भेदसे दो भेद कहे गये हैं । इससे भी यही सिद्ध होता है कि आत्मा स्वतः रागादि भावोंका कर्ता नहीं है ।
" शास्त्र में प्रत्येक दोष द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका बतलाया गया है । इसका यही अर्थ है कि जीवगत प्रत्येक विभाव-दोषकी उत्पत्तिका कारण पर-द्रव्य है । उदाहरणार्थ - भाव अप्रतिक्रमण दोषका कारण द्रव्य - अप्रतिक्रमण है । अगर जीव स्वयमेव अपने रागादि विभावोंका कारण होता तो प्रत्येक दोषके 'द्रव्य' और 'भाव' यह दो भेद करनेका कोई अर्थ
१. बाह्य जड पदार्थ - विषय - 'द्रव्य' है और उससे होनेवाला जीवगत रागादिभाव 'भाव' है । पूर्वानुभूत विषयका त्याग - उसमें ममता - यह द्रव्य-प्रतिक्रमण है; और उस विषय अनुभवसे उत्पन्न हुए भावमें ममता - ममताका अत्याग-भाव अप्रतिक्रमण है । भावी विषयोंके अनुभवसे होनेवाले भावों में ममता होना भाव- श्रप्रत्याख्यान है ।
२. यह पैराग्राफ मूलका नहीं है।