________________
पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु
जो ऐसा मानता है कि 'मैं दूसरोंकी हिंसा करता हूँ तथा दूसरे मेरी हिंसा करते हैं,' वह मूढ़ अज्ञानी है । ज्ञानीका विचार इससे विपरीत होता है । जिनेश्वरोंने कहा है - आयुकर्मका क्षय होनेपर जीवोंका मरण होता है । अगर तुमने उनके आयुकर्मका हरण नहीं किया तो उनकी मृत्युके कारण तुम किस प्रकार हो सकते हो ? इसी प्रकार दूसरे तुम्हारी मृत्यु कैसे कर सकते हैं ? इसके अतिरिक्त जो ऐसा मानता है कि 'मैं दूसरोंको जीवित रखता हूँ या दूसरे मुझे जीवित रखते हैं, ' वह भी मूढ़ और अज्ञानी है । क्योंकि सर्वज्ञोंका कथन है कि प्रत्येक जीव अपने-अपने आयु- कर्मके उदयसे जीवित रहता है। अगर तुम दूसरे जीवोंको आयुकर्म नहीं दे सकते तो तुमने उन्हें कैसे जिलाया ? और दूसरोंने तुम्हें कैसे जिलाया ? इसी प्रकार सबं जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मके कारण सुखी या दुःखी हो रहे हैं। अगर तुम उन्हें शुभ या अशुभ कर्म नहीं दे सकते तो उन्हें सुखी या दुःखी कैसे बना सकते हो ? इसी प्रकार दूसरोंने तुम्हें सुखी या दुःखी किस प्रकार बनाया है ? अतएव 'मैं दूसरोंको मारता हूँ, जिलाता हूँ या सुखी-दुःखी करता हूँ, ऐसी बुद्धि मिथ्या है । इसी मिथ्या बुद्धिसे तुम शुभाशुभ कर्मका बन्ध करते हो । जीव मरें या न मरें, परन्तु मारनेका जो अध्यवसाय या बुद्धि है, वही वास्तवमें बन्धका कारण है । यही बात असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहके सम्बन्धमें समझनी चाहिए । अध्यवसाय वस्तुका अवलम्बन करके उत्पन्न होता है और इस अध्यवसायसे - वस्तुसे नहीं - जीवको बन्ध होता है ( स० २४५-६५ )
८७
जीव अपने अध्यवसायसे ही पशु, नारक, देव, मनुष्य तथा विविध पाप, पुण्य, धर्म, अधर्म, जड़, चेतन, लोक और अलोक आदि भावोंके रूप में परिणत होता है । जिनमें इस प्रकारके अध्यवसाय नहीं हैं, वह सब मुनि शुभ या अशुभ कर्मसे लिप्त नहीं होते । ( स ० २६६-२७० )
बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव, परिणाम