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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
समस्त पदार्थोंके धर्मोंमें जो जुगुप्सा नहीं करता, वह निर्विचिकित्स आत्मा सम्यग्दृष्टि है |
सब भावोंमें जो असंमूढ़ है तथा यथार्थ दृष्टिवाला है, वह अमूढ़ आत्मा सम्यग्दृष्टि है ।
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सिद्धोंकी भक्ति से युक्त तथा आत्मा विधर्मोका विनाशक आत्मा सम्यग्दृष्टि है ।
उन्मार्गमें जाते अपने आत्माको जो सन्मार्गमें स्थापित करता है, वह आत्मा सम्यग्दृष्टि है |
मोक्षमार्गके साधक ज्ञान, दर्शन और चारित्रपर जिसका वात्सल्य भाव है, वह आत्मा सम्यग्दृष्टि है ।
जिनेश्वरोंके ज्ञानकी आराधना करनेवाला जो जीव विद्यारूपी रथपर आरूढ़ होकर मनोरथ-मार्गों में विचरण करता है, वह जीव सम्यग्दृष्टि है । ( स० २२९-३६ )
८. बन्ध
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बन्धका कारण - कोई पुरुष शरीरपर तेल चुपड़कर धूलवाली जगह में खड़ा है । वह शस्त्रादिसे ताड़, केला, बाँस वगैरह जड़-चेतन पदार्थोंकी काट-छांट कर रहा है। उसके शरीरपर रज क्यों चिपकती है, इस बातका विचार करो । रज उसकी शारीरिक चेष्टाके कारण नहीं किन्तु शरीरपर चुपड़े हुए तेलकी चिकनाईके कारण चिपकती है, यह बात स्पष्ट है । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव विविध प्रकारकी शारीरिक-मानसिक चेष्टाएँ करता हुआ रागादि भावोंके कारण कर्म - रजसे लिप्त होता है । पूर्वोक्त कायिक चेष्टावाले पुरुषके शरीरपर तेलकी चिकनाई न हो तो, सिर्फ कायिक चेष्टा मात्र से धूल नहीं चिपक सकती, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष अनेक प्रकारकी प्रवृत्तियाँ करता हुआ भी अगर रागादि भाव-युक्त न हो तो उसे कर्म - रज नहीं चिपकती ( स० २३७-४६ ) ।