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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न नया बन्ध होता है। किन्तु रागादिके अभावमें पूर्वकर्म अपनी सत्ता मात्रसे नवीन कर्मबन्धन नहीं कर सकते। जैसे पुरुषका खाया हुआ आहार, उदराग्निसे संयुक्त होनेपर ही मांस, वसा और रुधिर आदिके रूपमें परिणत होता है, उसी प्रकार जो जीव रागादि अवस्थायुक्त है उसके पूर्व कर्म ही अनेक प्रकारके नवीन कर्म बाँधते हैं; ज्ञानीके पूर्वकर्म नहीं । (स० १७३-८०) ६. संवर
चेतना चेतनामें रहती है; क्रोधादिमें कोई चेतना नहीं है। क्रोधमें . ही क्रोध है; चेतनामें कोई क्रोध नहीं है। इसी प्रकार आठ प्रकारके कर्म और शरीररूप नोकर्ममें भी चेतना नहीं है; तथा चेतनामें कर्म या नोकर्म नहीं हैं। इसीको अविपरीत ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान जीवको जब प्राप्त होता है, तब वह रागादि भावोंमें परिणत नहीं होता। सुवर्ण जितना चाहे तपाया जाय, वह स्वर्णपन नहीं तजता, इसी प्रकार ज्ञानी कर्मोके उदयसे कितना ही तप्त क्यों न हो, मगर वह अपने स्वभाव ज्ञानीपनको नहीं तजता । ज्ञानी अपने शुद्ध स्वरूपको जानता है। अज्ञानी अन्धकारमें डूबा हुआ है । वह आत्माका स्वरूप नहीं समझता। वह रागादि विकारोंको ही आत्मा मानता है । (स० १८१-६)
सच्चा संवर - अपने-आपको, अपनी ही सहायतासे, पुण्य-पाप रूपी प्रवृत्तियोंसे रोककर, अपने दर्शन-ज्ञानरूप स्वभावमें स्थिर होकर, पर-पदार्थोंकी वांछासे विरत होकर, सर्व संगका त्याग करके जो पुरुष आत्माका, आत्मा द्वारा ध्यान करता है; तथा कर्म एवं नोकर्मका ध्यान न करता हुआ आत्माके एकत्वका ही चिन्तन करता है और अनन्यमय अथवा दर्शन-ज्ञानमय बन जाता है, वह कमरहित शुद्ध आत्माको शीघ्र उपलब्धकर लेता है । (स० १८७-८)
मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग-यह चार अध्यवसान आत्मा