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पारमार्थिक दृष्टिबिदु
८१ आच्छादित होकर संसारको प्राप्त होकर अज्ञानी बन जाता है ( स० १५५-६३ ) ५. प्रास्रव
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, यह चार आसव ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंके बन्धके कारण हैं। परन्तु जीवके राग-द्वेष आदि भाव उनके भी कारण हैं । अतएव वस्तुतः राग, द्वेष और मोह ही आसव अर्थात् कर्मबन्धके द्वार हैं। ( स० १६४-५ )
जिस किसोको सम्यग्दर्शन हो गया है, उसे आसव या बन्ध नहीं होता, क्योंकि जीवका रागादियुक्त भाव ही बन्धका कारण है। जैसे पका फल वृक्षसे टूटकर नीचे गिर पड़ता है और फिर कभी डण्ठलमें जाकर नहीं लगता, इसी प्रकार जीवका रागादि भाव एक बार गल जानेके अनन्तर फिर कभी उदित नहीं होता । अज्ञान अवस्थामें पहले बाँधे हुए कर्म भी उसके लिए मिट्टीके पिण्ड सरीखे हो जाते हैं और कर्म शरीरके साथ बँधे रहते हैं । (स० १६६-९)
ज्ञानी और बन्ध - पूर्वोक्त मिथ्यात्व आदि चार आसव उदयमें आकर जीवके ज्ञान और दर्शनको रागादि ( अज्ञान ) भावोंके रूपमें परिणत कर देते हैं, तभी जीव अनेक प्रकारके कर्मोंका बन्ध करता है । जबतक जीवका ज्ञानगुण हीन अर्थात् कषाययुक्त रहता है, तबतक वह विपरीप रूपमें परिणत होता रहता है। परन्तु जीव जब कषायोंका त्याग करके सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तब विभाव परिणमन बन्द हो जाता है और कर्म-बन्धन नहीं होता । (स० १७०-२)
जैसे बालिका स्त्री, अपनी विद्यमानताके ही कारण पुरुषके लिए उपभोग्य नहीं होती, किन्तु वह जब तरुणी होती है तब ( रागादियुक्त) पुरुषके साथ उसका सम्बन्ध होता है, इसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्म जब फलोन्मुख होते हैं, तब जीवके नवीन रागादि भावके अनुसार सात या आठ कर्मोंका