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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
४. पुण्य-पाप
शुभाशुभ कर्म दोनों अशुद्ध - लोग समझते हैं, अशुभ कर्म हो कुशील है और शुभकर्म सुशील है । परन्तु अगर शुभकर्म भी संसारमें ही प्रवेश कराता है तो उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है ? जैसे लोहेकी सांकल मनुष्यके बन्धनका कारण है, उसी प्रकार सोनेकी सांकल भी । शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके कर्म जीवको बद्ध करते हैं। परमार्थ दृष्टिसे शुभ और अशुभ - दोनों कर्म कुशील हैं। उनका संसर्ग या उनपर राग करना उचित नहीं। कुशीलपर राग करनेवालेका विनाश निश्चित है। कुशील पुरुषको पहचान लेनेके पश्चात् चतुर पुरुप उसका संसर्ग नहीं करता, उसपर राग भी नहीं रखता; इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष कर्मोके शीलस्वभावको जानकर उनका संसर्ग तज देता है और स्वभावमें लीन हो जाता है । ( स० १४५-५०)
शुद्ध कर्म - विशुद्ध आत्मा ही परमार्थ है, मुक्ति है, केवलज्ञान है, मुनिपन है । उस परम स्वभावमें स्थित मुनि निर्वाण प्राप्त करते हैं। उस परमार्थमें स्थित हुए बिना जो भी तप करते हैं, व्रत धारण करते हैं, वह सब अज्ञान है, ऐसा सर्वज्ञ कहते हैं। परमार्थसे दूर रहकर व्रत, शील, तपका आचरण करनेवाला निर्वाण-लाभ नहीं कर सकता। परमार्थसे बाहर रहनेवाले अज्ञानी सच्चा मोक्षमार्ग न जाननेके कारण, संसार भ्रमणके हेतु रूप पुण्यकी ही अभिलाषा करते हैं । (स० १५१-४)
पण्डित जन पारमार्थिक वस्तुका त्याग करके व्यवहारमें ही प्रवृत्ति किया करते हैं, परन्तु यतिजन परमार्थका आश्रय लेकर कर्मोंका क्षय कर डालते हैं । मैल लगनेसे वस्तुकी स्वच्छता छिप जाती है, इसी प्रकार मिथ्यात्वरूपी मैलसे जीवका सम्यग्दर्शन आच्छादित हो जाता है, अज्ञानरूपी मैलसे सम्यग्ज्ञान ढंक जाता है और कषाय-मलसे सम्यक्-चारित्र छिप जाता है। जीव-स्वभावसे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है; परन्तु कर्म-रजसे