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पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु १३२-६ ) परन्तु यह सब जड़कमके परिणाम हैं, अतएव अचेतन हैं । जैसे चैतन्य जीवसे अनन्य (अभिन्न) है, उसी प्रकार जड़ क्रोध आदि भी अगर अनन्य होते, तो जीव और अजीव दोनों एक रूप हो जाते । फिर तो जीव ही अजीव है, ऐसा कहनेका अवसर भी आ जाता। ( स० १०९-१५)
अलबत्ता, पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मरूपमें परिणत होकर जीवके साथ न बंधता होता तो संसारके अभावका ही प्रसंग आता। अथवा सांख्य मतकी स्थितिकी परिस्थिति हो जाती। इसी प्रकार जीव भी यदि स्वयं क्रोधादि रूपमें परिणत होकर कर्मके साथ बंधता न होता, तो वह अपरिणामी ठहरता और उल्लिखित संसाराभाव आदि दोष आ उपस्थित होते । अतएव यह समझना चाहिए कि पुद्गलद्रव्य स्वयं परिणमनशील होनेके कारण स्वयं ही ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंके रूपमें परिणत होता है और इसी प्रकार जीव भी स्वयं क्रोध-भावमें परिणत होकर क्रोध रूप हो जाता है । ( स० ११६-२५ ) परन्तु इतना याद रखना चाहिए कि ज्ञानीका भाव ज्ञानमय होता है; अतः कर्मोके कारण उत्पन्न होनेवाले विभावोंको वह अपनेसे भिन्न मानता है। परन्तु अज्ञानीके भाव अज्ञानमय होते हैं, इसलिए वह कर्म-जन्य भावोंको अपनेसे अभिन्न मानकर तद्रपमें परिणत होकर नवीन कर्मबन्धन प्राप्त करता है। ज्ञानीको यह कर्मबन्धन नहीं होता । (स० १२६-३१)
पारमार्थिक दृष्टि - व्यवहारदृष्टिवाले ही कहते हैं कि जीवको कर्मका बन्ध होता है, स्पर्श होता है; परन्तु शुद्ध दृष्टिवालोंके कथनानुसार जीवको न कर्मबन्ध होता है, न कर्मस्पर्श ही होता है। लेकिन बन्ध होना, या न होना, यह सब दृष्टियोंके झगड़े हैं। आत्मा तो समस्त विकल्पोंसे पर है। वही 'समयसार है और इस समयसारको ही सम्यग्दर्शन और ज्ञान कह सकते हैं । ( स० १४१-४४) १. 'समयसार' यह ग्रन्थ या उसका सिद्धान्त । अथवा, समयका अर्थ है
आत्मा, आत्माका सार अर्थात् शुद्ध स्वरूप 'समयसार' कहलाता है।