________________
पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु . के रागादि भावोंके कारण हैं। ज्ञानीमें इन कारणोंका अभाव होता है, अतएव उसे आसव-निरोधकी प्राप्ति होती है। कर्मका अभाव हो जानेपर उसे नोकर्म अर्थात् शरीरका निरोध प्राप्त होता है और नोकर्मके निरोधसे संसारका निरोध प्राप्त होता है। (स० १९०-२), ७. निर्जरा
ज्ञानी और भोग - ज्ञानी पुरुष इन्द्रियों द्वारा ( पूर्वकर्मवशात् ) जड़-चेतन द्रव्योंका जो उपभोग करता है, वह सब उसके लिए निर्जरा (कर्मक्षय)का निमित्त बन जाता है। उन द्रव्योंका उपभोग करते समय उसे जो सुख-दुःख होता है, उसका वह अनुभव करता है। कर्म अपना फल देकर खिर जाता है। जैसे कुशल वैद्य चिकित्सापूर्वक विष भक्षण करनेपर भी मरता नहीं है, उसी प्रकार पूर्वकर्मों के प्राप्त फलको भोगनेपर भी ज्ञानी पुरुष कर्म-बद्ध नहीं होता। जैसे अरुचिपूर्वक मद्यपान करनेवाला पुरुष मत्त नहीं होता, उसी प्रकार द्रव्योंके उपभोगमें अनासक्त ज्ञानी भी बन्धनको प्राप्त नहीं होता। कोई पुरुष विषयोंका सेवन करता हुआ भी वस्तुतः विषयोंका सेवन नहीं करता। और कोई-कोई विषयोंका सेवन न करता हुआ भी वस्तुतः सेवन करता है। ठीक इसी प्रकार जैसे दास घरका काम-काज करता हुआ भी मनमें जानता है कि वह इस घरका मालिक नहीं है (स० १९३-७) ____ ज्ञानियोंने कर्मके विविध परिणाम बखाने है। परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि-'कर्मजन्य भाव आत्माके स्वभाव नहीं हैं। मैं एक चेतनस्वरूप हूँ। राग जड़ कर्म है। उसीकी बदौलत यह रागभाव उत्पन्न होता है। लेकिन यह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो एकमात्र चेतनास्वरूप हूँ।' इस प्रकार वस्तुतत्त्वका ज्ञाता ज्ञानी विविध भावोंको कर्मका परिणाम समझकर त्याग देता है। जिसमें अंशमात्र भी राग विद्यमान है वह शास्त्रोंको भले ही जानता हो, मगर आत्माको-अपने-आपको नहीं