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पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु है और फिर प्रयत्नपूर्वक उसकी सेवा करता है; उसी प्रकार मुमुक्षु पुरुष पहले जीवराजको ज्ञानी पुरुषोंसे जाने, उसका निश्चय करे और उसका सेवन करे। जबतक मोहादि अन्तरंग' कर्ममें और शरीर आदि बहिरंग नोकर्ममें अहं - ममभाव है, तबतक मनुष्य अज्ञानी है। अज्ञानसे मोहित मतिवाला तथा राग-द्वेष आदि अनेक भावोंसे युक्त मूढ पुरुष हो, अपने साथ सम्बद्ध या असम्बद्ध शरीर, स्त्री-पुत्रादि, धन-धान्यादि तथा ग्राम-नगर आदि सचित्त, अचित्त या मिश्र परद्रव्योंमें 'मैं यह हूँ, मैं इनका हूँ, यह मेरे हैं, यह मेरे थे, मैं इनका था, यह मेरे होंगे, मैं इनका होऊँगा' इस प्रकारके झूठे विकल्प किया करता है। परन्तु सत्य बात जाननेवाले सर्वज्ञ पुरुषोंने ज्ञानसे जाना है कि जीव सदैव चैतन्यस्वरूप तथा बोधव्यापार (उपयोग) लक्षणवाला है। आत्मा कहाँ जड़ द्रव्य है कि तुम जड़ पदार्थको 'यह मेरा है' इस प्रकार करते हो? अगर जीव जड़ पदार्थ बन सकता होता अथवा जड़ पदार्थ चेतन हो सकते, तो यह कहा जा सकता था कि 'यह जड़ पदार्थ मेरा है।' (स० १७-२५)
ज्ञान और आचरण - ज्ञानी पुरुष समस्त पर-भावोंको पर जानकर उनका त्याग करते हैं । अतएव 'जानना अर्थात् त्यागना' ऐसा नियमसे समझना चाहिए । जैसे लौकिक व्यवहारमें किसी वस्तुको परायी समझकर मनुष्य उसे त्याग देता है, इसी प्रकार ज्ञानी जीव पर-पदार्थोंको पराया जानकर उन्हें त्याग देते हैं। वह जानते हैं कि मोह आदि आन्तरिक भावों या आकाश आदि वाह्यभावोंसे मुझे किसी प्रकारका लेन-देन नहीं है। मैं तो केवल एक, शुद्ध तथा सदैव अरूपी हूँ; अन्य परमाणु मात्र भी मेरा अपना नहीं है । (स० ३४-८) २. जीव
मिथ्यादृष्टि - आत्माको न जाननेवाले और आत्मासे भिन्न वस्तुको आत्मा कहनेवाले कतिपय मूढ़ लोक (राग-द्वेषादि) अध्यवसायको आत्मा