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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
मानते हैं या कर्मको आत्मा कहते हैं । दूसरे लोग तीव्र- मन्द प्रभावसे भिन्नभिन्न प्रतीत होनेवाली रागादि वृत्तियोंकी परम्पराको आत्मा मानते हैं । कुछ लोग शरीरको आत्मा कहते है और कोई-कोई कर्मविपाकको । कतिपय लोग तीव्र- मंद गुणोंवाली कर्मकी शक्तिको आत्मा मानते हैं और कोईकोई कर्मयुक्त जीवको आत्मा कहते हैं । कुछ लोग ऐसे हैं जो कर्मोंके संयोगको ही जीव कहते हैं । इसी प्रकार अन्य दुर्बुद्धिवाले पुरुष आत्माका भिन्न-भिन्न रूपमें वर्णन करते हैं । यह सब परमार्थवादी नहीं हैं
( स० ३९-४३ )
आत्मा - अनात्माका विवेक - यह सब अध्यवसान आदि भाव जड़ द्रव्यके संयोगसे उत्पन्न होते हैं, केवलज्ञानियोंने ऐसा कहा है । फिर उन्हें जीव कैसे माना जा सकता है ? आठ प्रकारका कर्म जिसके परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाला फल दुःख नामसे प्रसिद्ध है -- सब जड़ द्रव्यरूप पुद्गलमय है । जहाँ अध्यवसान आदि भाव जीवके कहे हैं, वहाँ व्यवहार दृष्टिका कथन समझना चाहिए, जैसे सेनाके बाहर निकलने पर राजाका बाहर निकलना कहलाता है । जीव तो अरस, अरूप, अगन्ध, अस्पर्श, अव्यक्त (इन्द्रिय- अगोचर ), अशब्द, अशरीर, सब प्रकार के लिंग (चिह्न), आकृति ( संस्थान ) और बाँध ( संहनन ) से रहित तथा चेतना गुणवाला है । उसमें राग नहीं है, द्वेप नहीं है, मोह नहीं है । प्रमाद आदि कर्मबन्धनके द्वार ( प्रत्यय ) भा उसमें नहीं हैं । ज्ञानावरणीय आदि नोकर्म भी उसके नहीं है । विभिन्न क्रमसे विकसित ( कर्मकी ) शक्तियोंका कर्म अथवा शरीर आदि समूह, शुभ -अशुभ रागादि विकल्प, शारीरिक, मानसिक या वाचनिक प्रवृत्तियाँ, कषायोंकी तीव्रता, अतीव्रता या क्रमहानि, विभिन्न देह तथा मोहनीय कर्मकी क्षय- वृद्धि के अनुसार होनेवाले आध्यात्मिक विकासक्रमरूप गुणस्थान े,
१. 'गुण' अर्थात् आत्माकी स्वाभाविक शक्तियाँ और 'स्थान' अर्थात् उन शक्तियोंकी तर - तमतावाली अवस्थाएँ । श्रात्मा के सहज गुणोंपर चढ़े हुए प्रावरण