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पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु
१. प्रास्ताविक
दो दृष्टियाँ - जैसे म्लेच्छ लोगोंको म्लेच्छ भाषाके बिना कोई बात नहीं समझायो जा सकती, उसी प्रकार सामान्य जनताको व्यवहारदृष्टिके बिना पारमार्थिक दृष्टि नहीं समझायी जा सकती। व्यवहारदृष्टि असत्य है और शुद्ध पारमार्थिक दृष्टि सत्य है। जो जीव पारमार्थिक दृष्टिका अवलम्बन लेता है और इसी दृष्टिसे जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, इन नौ पदार्थोंका स्वरूप समझता है, वही सम्यग्दृष्टि कहलाता है। परम भावमें स्थित अधिकारियोंको वस्तुका शुद्ध स्वरूप प्रकाशित करनेवाली पारमार्थिक दृष्टिकी ही भावना करनी चाहिए। व्यवहारदृष्टि अपर भावमें स्थित जनोंके लिए ही है। ( स०८,११-३ )
जो दृष्टि आत्माको अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त जानती है, वह पारमार्थिक दृष्टि है। आत्मा न प्रमत्त (संसारी) है न अप्रमत्त (मुक्त) है । व्यवहारदृष्टिसे कहा जाता है कि आत्मामें दर्शन है, ज्ञान है और चारित्र है, किन्तु वास्तवमें न उसमें दर्शन है, न ज्ञान है और न चारित्र है, वह तो शुद्ध चैतन्य स्वभाव है। जो मनुष्य आत्माको इस रूपमें जानता है, वह समग्र जिन-शास्त्रका ज्ञाता है। (स० ६-७, १४.५)
जैसे कोई द्रव्यार्थी पुरुष राजाको जानता है, उसका निश्चय करता १. पारमार्थिक दृष्टि के लिए मूल में शुद्ध नय, निश्चय नय, या पारमार्थिक नय,
शब्दोंका प्रयोग किया गया है। अनुवादमें इनके स्थानपर 'परमार्थ दृष्टि' या 'पारमार्थिक दृष्टि' शब्दका प्रयाग किया है । नय अर्थात् दृष्टि, दृष्टिकोण या दृष्टिबिन्दु।