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द्रव्यविचार
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शान्त हो गये हैं, जो सदाचारमें प्रवृत्त है तथा तपस्या में भी जो अधिक है, ऐसा मुनि भी अगर लौकिक जनोंके संसर्गको नहीं तजता तो वह संयमी नहीं हो सकता । प्रव्रज्या धारण करके भी जो निर्ग्रन्थ मुनि लौकिक कार्यों में रचा-पचा रहता है, वह संयम और तपसे युक्त भले ही हो, तब भी उसे लौकिक ही कहना चाहिए । अतएव, जिस श्रमणको दुःखसे मुक्त होनेकी अभिलाषा हो उसे समान गुणवालेकी या अधिक गुणवालेकी संगतिमें रहना चाहिए | जैनमार्गमें रहकर भी जो पदार्थोंका स्वरूप विपरीत समझकर 'यही तत्त्व है' ऐसा निश्चय कर बैठता है, वह भविष्यमें भीषण दुःख भोगता हुआ, लम्बे समय तक परिभ्रमण करता है । मिथ्या आचरणसे रहित, पदार्थोके यथार्थ स्वरूपका निश्चय करनेवाला, और प्रशान्तचित्त मुनि परिपूर्ण श्रमणताका पात्र है और वह इस अफल संसारमें लम्बे समय तक जीवित नहीं रहता शीघ्र मुक्तिलाभ करता है । (प्र० ३, ६१-७३ )