________________
कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न अवस्थामें, अपनी शक्ति या अवस्थाके अनुसार ऐसी चर्या रखनी चाहिए जिससे मूल गुणोंका उच्छेद न हो । जो श्रमण अपने आहार-विहारमें देश, काल, श्रम, शक्ति और शरीरकी स्थितिका सोच-विचार करके बरतता है, उसे कमसे कम बन्ध होता है । ( प्र० ३, २७-३१)
शास्त्रज्ञान - जो एकाग्न हो, वही श्रमण कहलाता है। एकाग्रता वही प्राप्त कर सकता है, जिसे पदार्थोंका निश्चय हो गया हो। पदार्थोंका निश्चय आगमसे होता है। अतएव आगमज्ञान प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करना अत्यन्त आवश्यक है। आगम पढ़नेपर भी यदि तत्त्वार्थमें श्रद्धा न हो तो मुक्ति नहीं मिल सकती। इसी प्रकार, श्रद्धा होनेपर भी अगर तदनुसार संयम ( आचरण ) न हुआ तो भी निर्वाणकी प्राप्ति नहीं हो सकती। लाखों या करोड़ों भवोंमें भी अज्ञानी जिन कर्मोका क्षय नहीं कर सकता, उन कर्मोको ज्ञानी श्रमण एक उच्छ्वासमात्रमें क्षय कर डालता है। इसके अतिरिक्त जिसके अन्तःकरणमें देह आदिके प्रति अणुमात्र भी आसक्ति है, वह समस्त आगमोंका पारगामी होनेपर भी सिद्धिलाभ नहीं कर सकता। जो पांच समितियों और तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित होता है; पाँचों इन्द्रियोंका निग्रह करता है, कषायोंपर विजय प्राप्त करता है और दर्शन तथा ज्ञानसे परिपूर्ण होता है, वह श्रमण, संयमी कहलाता है । उसके • लिऐ शत्रु और बन्धुवर्ग, सुख और दुःख, प्रशंसा और निन्दा, मिट्टीका ढेला
और सोना तथा जीवन और मरण, सब समान होते हैं। दर्शन, ज्ञान और चारित्र, इन तीनोंमें एक साथ प्रयत्नशील रहनेवाला ही एकाग्रता प्राप्त करता है और उसीका श्रमणपन परिपूर्ण होता है। परद्रव्यका संयोग होनेपर जो अज्ञानी श्रमण मोह, राग या द्वेष करता है, वह विविध कर्मोका बन्धन करता है। परन्तु जो श्रमण अन्य द्रव्योंमें राग, द्वेष या मोह धारण नहीं करता, वह निश्चय ही विविध कर्मोंका क्षय कर सकता है। (प्र० ३, ३२-४) . सेवाभक्ति - जैनसिद्धान्तमें दो प्रकारके श्रमण बतलाये गये हैं -