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द्रव्यविचार
जबतक मुनि निरपेक्ष भावसे सर्व परिग्रहका त्याग नहीं करता, उसकी चित्तशुद्धि नहीं हो सकती; और जबतक चित्त अशुद्ध है तबतक कर्मका क्षय हो ही कैसे सकता है ? परिग्रह करनेकालेमें आसक्ति, आरम्भ या असंयमका होना अनिवार्य है। और जहाँतक परद्रव्यमें आसक्ति है तहाँतक मनुष्य आत्मसाधना किस प्रकार कर सकता है ? कोई श्रमण किंचित् परिग्रह ( उपकरणरूप )का सेवन करता भी हो, तो भी उसे काल और क्षेत्र देखकर इस प्रकार बरतना चाहिए कि संयमका छेद न हो। उसका परिग्रह चाहे कितना ही अल्प क्यों न हो, मगर वह निषिद्ध तो हरगिज नहीं होना चाहिए । वह ऐसा नहीं होना चाहिए, जिसकी असंयमी लोग इच्छा करते हैं । साथ ही ममता, आरम्भ और हिंसादिक उत्पन्न करनेवाला नहीं होना चाहिए। मुमुक्षु पुरुषके लिए शरीर भी संग-रूप है। इस कारण जिनेश्वरोंने ( दातौन, स्नान आदि ) शारीरिक संस्कारोंके भी त्यागका उपदेश किया है। (प्र० ३,१९-२४)
जैनमार्गमें मुमुक्षुके लिए निम्नलिखित साधनसामग्री विहित है - जन्मजात जैसा जन्मा वैसा-अपना ( नग्न ) शरीर, गुरुवचन, विनय और श्रुतका अध्ययन । जिसे न इस लोककी अपेक्षा है न परलोककी आसक्ति है, जिसका आहार-विहार प्रमाणपूर्वक है, जो कषायरहित है, वही श्रमण कहलाता है। जिसका आत्मा एषणासे रहित है, वह सदैव अनशन तप करनेवाला है । श्रमण इसी अनशनको आकांक्षा रखते हैं । शुद्धात्म-स्वरूपकी उपलब्धिके लिए निर्दोष आहार ग्रहण करनेवाले श्रमण निराहार ही हैं, ऐसा समझना चाहिए । श्रमणको केवल देहका ही परिग्रह है, लेकिन देहमें भी उन्हें ममता नहीं है और अपनी शक्तिके अनुसार तपमें ही देहका प्रयोग करते हैं। श्रमण दिनमें एक ही बार आहार ग्रहण करते हैं, पेटको खाली रखते हुए आहार लेते हैं - भरपेट नहीं, भिक्षामें जैसा मिलता है वैसा ही खाते हैं, दिनमें ही खाते हैं, रसकी अपेक्षा नहीं रखते, मद्य-मांसके पास नहीं फटकते । बालक हो, वृद्ध हो, थका हुआ हो या रोगग्रस्त हो तो ऐसी