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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न है; और संयमका एकदेशीय अथवा सर्वदेशीय छेद करके, फिर संयममें स्थापन करनेवाला गुरु 'निर्यापक' कहलाता है। सावधान रहकर प्रवृत्ति करनेपर भी यदि किसी श्रमणके संयमका छेद हो जाये तो आलोचना करके, पुनः प्रवृत्ति प्रारम्भ करना ही पर्याप्त है, किन्तु जानते-बूझते संयमका भंग किया हो तो जैनमार्गको व्यवहार क्रियामें चतुर श्रमणके समीप जाकर, उसके समक्ष अपना दोष प्रकाशित कर देना चाहिए और वह जैसा कहे, वैसा करना चाहिए । श्रमणको गुरुके संसर्गमें या अन्यत्र कहों, अपनी श्रमणताका भंग न होने देना चाहिए तथा परद्रव्यमें इष्ट-अनिष्ट सम्बन्धोंका त्याग करते हुए विहरना चाहिए। जो श्रमण सदैव दर्शनपूर्वक, ज्ञानके अधीन होकर आचरण करता है; अनन्त गुण-युक्त ज्ञानस्वरूप आत्मामें नित्य लीन रहता है, साथ ही मूलगुणोंमें प्रयत्नशील बना रहता है, उसको श्रमणता परिपूर्ण कहलाती है। अतएव, प्रयत्नशील मुनिको आहारमें या अनशनमें, निवासस्थानमें या विहारमें, देहमात्र परिग्रह या परिचित मुनिमें - किसी भी परपदार्थमें अथवा विकथामें लीन नहीं होना चाहिए। (प्र० ३, ८-१५) ___अहिंसा - सोने, बैठने और चलने-फिरने आदिमें मुनिको सावधानता रहित जो प्रवृत्ति है, वही उसकी हमेशा निरन्तर चलनेवाली हिंसा है। क्योंकि 'दूसरा जोव जीये या मरे' इस प्रकारकी लापरवाही रखनेवालेको हिंसाका पाप निश्चय ही लगता है। किन्तु जो मुनि समितियुक्त तथा यत्नशील है, उसे हिंसामात्रसे बन्ध नहीं होता। सावधानीसे प्रवृत्ति न करनेवाला श्रमण छहों जीवकायोंका वध करनेवाला गिना जाता है, किन्तु हमेशा प्रयत्नपूर्वक बरतनेवाला जलमें कमलकी तरह निर्लेप रहता है। (प्र० ३, ६-८) ___अपरिग्रह - मुनिकी कायचेष्टा-द्वारा जीवके मर जानेपर भी, जैसा कि पहले कहा गया है, मुनिको बन्ध होता है अथवा नहीं भी होता, मगर परिग्रहसे तो अवश्य ही बन्ध होता है, इसीलिए श्रमण सर्वत्यागी होता है।