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द्रव्यविचार गयी है, जो शास्त्रकुशल है और जो वीतराग-चरित्रमें उद्यमशील है, वह महात्मा 'धर्म' अर्थात् शुद्धात्म-स्वरूप बनता है। (प्र० १, ९१-२, प्र.. ३, १-७)
मूलगुण - पांच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, केशलुंचन, छह आवश्यक क्रियाएँ, वस्त्ररहितता, अस्नान, भूमिशय्या, दतौन न करना, खड़े-खड़े भोजन करना और दिन में एक ही बार भोजन करना, इन अट्ठाईस नियमोंको जिनवरने श्रमणके मूलगुण कहा है। इसमें प्रमाद करनेवाले श्रमणका श्रमणपद खण्डित हो जाता है और उसे पुनः नयी दीक्षा लेनी पड़ती है। दीक्षा देनेवाला गुरु 'प्रव्रज्यादायक' कहलाता १, हिंसासे बचनेके लिए यत्न-सावधानी-पूर्वक प्रत्येक क्रिया करना समिति है । 'समिति' के पाँच भेद हैं - (१) चार हाथ पागेको भूमि देखकर चलना ईर्यासमिति कहलाती है। (२) हित, मित, मधुर और सत्य भाषण करना भाषासमिति है । (३) निर्दोष आहार - जो मुनिके लिए न बनाया गया हो-ग्रहण करना एषणासमिति है । (४) संयमके उपकरण शास्त्र, कमण्डलु आदिको देख-भालकर रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति है । ( ५ ) जीव-जन्तुरहित भूमिपर, देख-भालकर मल-मूत्र आदिका उत्सर्ग करना उत्सर्ग-समिति है। २. षट आवश्यक क्रियाएँ इस प्रकार हैं : (१) सामायिक दुश्चिन्तनका त्यागकर, आत्मचिन्तन करते हुए चित्तको समभावमें स्थापित करना। (२) चतुर्विशतिस्तव - चौबीस तीर्थकरोंका नामपूर्वक गुणकीनन करना। (३) वन्दन - वन्दनाके योग्य धर्माचार्योंको विधिपूर्वक नमस्कार करना । (४) प्रतिक्रमण - शुभ आचार त्यागकर अशुभ भाचारमें प्रवृत्ति की हो तो उससे कटकर पुनः शुभमें विधिपूर्वक पाना तथा कृत दोषोंकी स्वीकृतिपूर्वक क्षमायाचना करना । (५) कायोत्सर्ग- स्थान, मौन और ध्यान तथा श्वासोच्छवास आदिके सिवा अन्य समस्त शारीरिक प्रवृत्तियोंका (नियत समय तक ) त्याग कर देना । (६) प्रत्याख्यान-प्रवृत्तिकी मर्यादा निश्चित कर
लेना-चारित्र सम्बन्धी कोई भी नियम ग्रहण करना । ३. मूलमें, 'छेदोपस्थापक होता है।