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द्रव्यविचार कोई शुद्धभाववाला होता है, कोई शुभभाववाला। इनमें जो शुद्धभाववाला है, वही कर्मबन्धनसे रहित ( अनास्रव ) है; दूसरे सब कर्म-बन्धनके अधीन हैं। अर्हन्त आदिकी भक्ति तथा शास्त्रज्ञ आचार्य आदिके प्रति वत्सलताभाव रखनेवाला श्रमण शुभभाववाला कहलाता है। जबतक अपनी सराग अवस्था है, तबतक सन्त पुरुषोंको वन्दन-नमस्कार करना, उनके सामने आनेपर खड़ा होना, उनका अनुसरण करना, इत्यादि प्रवृत्तियाँ श्रमणके लिए निषिद्ध नहीं हैं। दर्शन और ज्ञानका उपदेश देना, शिष्योंको ग्रहण करना, उनका पालन करना और जिनेन्द्रकी पूजाका उपदेश देना-यह सराग अवस्थावाले मुनियोंकी चर्या है। अन्य जीवोंको किसी प्रकारको बाधा न पहुंचाते हुए चतुर्विध श्रमणसंघकी सेवा करना भी सराग अवस्थावालेकी प्रवृत्ति है। परन्तु इस प्रकारकी सेवा करनेके लिए अन्य जीववर्गको कष्ट पहुँचानेवाला श्रमण नहीं रह सकता । ऐसा करना तो गृहस्थ श्रावकका धर्म है। गृहस्थधर्मको पालते हुए या यतिधर्मका अनुष्ठान करते हुए जैनोंकी निष्काम बुद्धिसे सेवादि करना चाहिए। ऐसा करते हुए थोड़ाबहुत कर्मबन्ध हो तो भी हानि नहीं । रोगसे, क्षुधासे, तृषासे, या श्रमसे पीड़ित श्रमणको देखकर साधुको उसको यथाशक्ति सहायता करनी चाहिए। रोगी, गुरु या अपनेसे बड़े या छोटे श्रमणोंकी सेवाके लिए लौकिक मनुष्योंके साथ, शुभभावपूर्वक बोलने-चालनेका प्रसंग उपस्थित हो तो बोलनेका भी निषेध नहीं है। यह सब शुभभाव युक्त चर्या श्रमण या गृहस्थके लिए कल्याणकर है, क्योंकि इससे क्रमशः मोक्षरूप परमसौख्यकी प्राप्ति होती है । अलबत्ता, शुभ कहलानेवाला राग भी पात्र-विशेषमें विपरीत फल देता है । समान बीज भी भूमिकी भिन्नताके कारण भिन्न रूपमें परिणत हो जाता है।
और अल्पज्ञ द्वारा प्ररूपित व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान और दानका आचरण करनेवाला पुरुष भी मोक्ष नहीं पाता, सिर्फ सुखरूप देव-मनुष्यभव पाता है। जिन्हें परमार्थका ज्ञान नहीं है, और जिनमें विषय-कषाय