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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न यही हो सकता है। टीकाकार अमृतचन्द्र ६४वीं वगैरह गाथाओंको 'सिद्धान्तसूत्र' बतलाते हैं। किसी-किसी जगह बीचमें ऐसे श्लोकसमूह नजर आते हैं, जिनका पूर्वापर सम्बन्ध नहीं बैठता । और मोक्षचू लिका तो स्वतन्त्र विभाग ही प्रतीत होता है। अतएव यह सम्भव है कि कुन्दकुन्दाचार्यने अपने पूर्ववत्तियोंसे विरासतमें जो गाथाएँ उपलब्ध की होंगी उनका इस ग्रन्थमें संग्रह किया होगा।
'समयसार' जैनोंमें कुन्दकुन्दाचार्यका सर्वोत्तम ग्रन्थ माना जाता है। रूढ़िवादी तो यहां तक मानते हैं कि इस गूढ ग्रन्थको पढ़नेका गृहस्थोंको अधिकार ही नहीं है और इस मान्यताको कुछ आधार भी प्राप्त है। कारण यह है कि समयसारमें पारमार्थिक दृष्टिसे ही सारी चर्चा की गयी है, अतएव अनधिकारी साधारण जनको उसका कोई-कोई भाग सामाजिक और नैतिक व्यवस्थाको उलट-पलट कर देनेवाला प्रतीत हो सकता है। लेखक अपने पाठकको यह बतलाना चाहते हैं कि कर्मके सम्बन्धसे प्राप्त होनेवाली मूढ़ताके कारण बहुत-से लोगोंको आत्मज्ञान नहीं होता; अतएव प्रत्येक मनुष्यको अनासक्त होकर अजीवसे सर्वथा भिन्न आत्माका शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरूप समझना चाहिए। लेखक यह मान लेते हैं कि उनका पाठक जैन परिभाषासे परिचित है। अतएव कहीं आत्माका वास्तविक स्वरूप, कहीं कर्मबन्धका स्वरूप, कहीं कर्मबन्धनको रोकनेका उपाय, इस प्रकार महत्त्वपूर्ण विषयोंपर वे अपना हृदय निःसंकोच भावसे खोलते चले जाते हैं। किसी-किसी जगह तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि लेखक बुद्धिसे परेकी वस्तुके अनुभवको कहानी कह रहे हैं। कुछ स्थल ऐसे हैं जहाँ श्लोकोंके कुछ झूमके विषयके क्रमको भंग करके दाखिल हो गये हैं । वहाँ ऐसा लगे बिना नहीं रहता कि कुन्दकुन्दाचार्यने परम्परासे प्राप्त कतिपय श्लोक ग्रन्थमें सम्मिलित कर दिये हैं। ८५-८६ वें श्लोकोंमें 'दोकिरियावाद'का उल्लेख है और ११७, १२२ तथा ३४० वें श्लोकमें सांख्यदर्शनका नाम देकर उल्लेख है; यह बात ध्यानमें रखनेयोग्य है।