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उपोद्घात
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और गण, गच्छ, और संघके विषयमें जिस प्रकारका विवरण है, वह सब उनके अन्य ग्रन्थोंमें नहीं मिलता ।
५ बारस अणुवेक्खा ( द्वादशानुप्रेक्षा ) - इसमें ९१ गाथाएँ हैं । जैनधर्ममें प्रसिद्ध बारह भावनाओंका विवरण है । इस ग्रन्थकी अन्तिम गाथामें कुन्दकुन्दाचार्यका नाम है ।
६ नियमसार - इसमें १८७ गाथाएँ हैं । पद्मप्रभुने इसपर टोका लिखी है और उनके कथनानुसार ही हमें पता चलता है कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्यका है । सम्पूर्ण ग्रन्थका विवरण तथा उसकी पद्धति कुन्दकुन्दाचार्य के अन्य ग्रन्थोंके अनुरूप है । इस ग्रन्थका उद्देश्य ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप 'रत्नत्रय का, जो मोक्षमार्ग में आवश्यक है, नियमेन खासतौरसे ज्ञान कराना है ।
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७-६-६, नाटकत्रयी - 'पंचत्थिसंग्रह' ( पंचास्तिकाय), 'समय सार' और 'प्रवचनसार' ( पवयणसार ) इन तीन अन्तिम ग्रन्थोंको 'नाटकत्रयी' कहते हैं । वास्तवमें तो 'समयसार' ग्रन्थमें ही जीव- अजीवतत्त्वोंका संसाररूपी रंगभूमिमें अपना-अपना पार्ट अदा करनेवाला निरूपण किया गया है; अतएव यही ग्रन्थ 'नाटक' नामका पात्र है - इसीको नाटक कहा जा सकता है । परन्तु यह तीन ग्रन्थ मिलकर 'प्राभृतत्रयी' कहलाते हैं और इसी कारण इन तीनोंका इकट्ठा नाम 'नाटकत्रयी' पड़ गया है; हालाकि 'समयसार' को भी नाटक संज्ञा देनेवाले टीकाकार अमृतचन्द्र ही हैं । टीकाकारने सब तत्त्वोंका ऐसा निरूपण किया है जैसे नाटकके पात्र आतेजाते हों और इस कारण अपनी टीकामें इस ग्रन्थको नाटकका स्वरूप दिया है ।
'पंचास्तिकाय' को 'संग्रह' नाम दिया गया है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि इस ग्रन्थमें कुन्दकुन्दाचार्यने मुख्यतया अपने विषयसे सम्बद्ध श्लोकोंका संग्रह ही किया होगा । ग्रन्थको पढ़ते समय किसी-किसी स्थलपर पुनरावृत्ति या क्रमभंग होता हुआ प्रतीत होता है, इसका भी कारण