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सुभाषित
बालो वा बुड्डो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरउ सजोगां मूलच्छेदं जधा ण हवदि ॥ बालक हो, वृद्ध हो, थका हो या रोगग्रस्त हो, तो भी श्रमण अपनी शक्तिके अनुरूप ऐसा आचरण करे जिससे मूल-संयमका छेद न हो । ( ३, ३० )
आहारे व विहारे देतं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो वहृदि जदि अप्पलेवी सो ॥
आहार और विहारके विषय में श्रमण अगर देश, काल, श्रम, शक्ति और ( बाल, वृद्ध आदि ) अवस्थाका विचार करके आचरण करे तो उसे कमसे कम बन्धन होता है । ( ३, ३१ )
शास्त्रज्ञान
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एग्गगदो समणो एयगं णिच्छिदस्स अत्थे । णिच्छित्ती आगमदां आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ॥ लक्षण एकाग्रता है । जिसे पदार्थोंके एकाग्रता प्राप्त कर सकता है । होता है, अतः शास्त्र ज्ञान प्राप्त
मुमुक्षु ( श्रमण ) का सच्चा स्वरूपका यथार्थ निश्चय हुआ हो, वही पदार्थोंके स्वरूपका निश्चय शास्त्र द्वारा करनेका प्रयत्न, सब प्रयत्नोंमें उत्तम है । ( ३, ३२ )
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भागमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि । अविजाणतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ॥
शास्त्रज्ञानसे हीन श्रमण न अपना स्वरूप जानता है, न परका ही । और जिसे पदार्थोंके स्वरूपका ज्ञान नहीं है, वह कर्मोंका क्षय किस प्रकार कर सकता है ? ( ३, ३३ )
आगमचक्खू साहू इंदियचवखूणि सव्वभूदाणि । देवाय ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥