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१०८ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
प्राणी मात्रको इन्द्रियाँ चक्षु हैं, देवोंको अवधिज्ञान रूपी चक्षु है, केवलज्ञानी मुक्तात्माओंको सर्वतः चक्षु है और श्रमणोंके लिए आगम चक्षु है । ( ३, ३४)
सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं ।
जाणंति आगमण हि पेच्छित्ता तेवि ते समणा ॥ समस्त पदार्थोंका विविध गुणपर्याय सहित ज्ञान शास्त्र में है। मुमुक्षु शास्त्ररूपी चक्षुसे उन्हें देख सकता है और जान सकता है । ( ३, ३६ )
आगमपुव्वा दिट्टी ण मवदि जस्सेह संजमो तस्स ।
णस्थित्ति मणइ सुत्तं असंजदो हवदि किध समणो ॥ जिसकी श्रद्धा शास्त्रपूर्वक नहीं है, उसके लिए संयमाचरण सम्भव नहीं है । और जो संयमी नहीं वह मुमुक्षु ही कैसा! ( ३, ३६ )
ण हि भागमेण सिझदि सहहणं जदि ण अस्थि अत्थेसु ।
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिन्वादि । श्रद्धाके अभावमें कोरे आगम ज्ञानसे मुक्तिलाभ होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार आचरणहीन श्रद्धा-मात्रसे भी सिद्धि नहीं मिलती। ( ३, ३७)
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि ॥ जिसे देहादिमें अणुमात्र भी आसक्ति है, वह मनुष्य भले ही समस्त शास्त्रोंका ज्ञाता हो, मगर मुक्त नहीं हो सकता । ( ३, ३९)
१. जिस शानसे एक नियत मर्यादा तक मूर्त पदार्थोंको बिना इन्द्रिय और मन
के जाना जा सके।