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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न दंसणणाणचरित्तसु तीसु जुगवं समुढिदो जो दु ।
एयग्गगदोत्ति मदो सामण्णं तस्स परिपुण्णं ॥ श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रमें जो एक साथ प्रयत्नशील है और जो एकाग्र है, उसका श्रमणक्त परिपूर्ण कहलाता है । (३, ४२)
अत्थेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि व दोसमुत्रयादि । समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविधाणि ॥ पदार्थों में जिसे राग, द्वेष या मोह नहीं है, वह श्रमण, निश्चय ही विविध कर्मोका क्षय करता है। (३, ४४)
इहलोगनिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्मि ।
जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो॥ इस लोक या परलोकके विषयमें जिसे कुछ भी आकांक्षा नहीं है, जिसका आहार-विहार प्रमाणपूर्वक है और जो क्रोधादि विकारोंसे रहित है, वह सच्चा श्रमण है।
जस्स अणेसणमप्या तंपि तो तप्पडिच्छगा समणा।
अण्णं मिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा । आत्मामें परद्रव्यको किंचित् भी अभिलाषा न होना ही वास्तविक तप (उपवास) है। सच्चा श्रमण इसी तपकी आकांक्षा करता है। भिक्षाद्वारा प्राप्त निर्दोष आहार करते हुए भी श्रमण अनाहारी ही है। (३,२७)
केवलदेहो समणो देहेण ममैत्ति रहिदपरिकम्मो ।
भाउत्तो तं तवसा अणिगृहं अप्पणो सत्तिं ॥ सच्चे श्रमणको शरीरके सिवा और कोई परिग्रह नहीं होता । शरीरमें भी ममता न होनेके कारण अयोग्य आहार आदिसे वह उसका पालन नहीं करता और शक्तिको जरा भी छिपाये बिना उसे तपमें लगाता है।
(३, २८)