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सुभाषित
१०५ शारीरिक प्रवृत्ति करनेपर जो जीवहिंसा हो जाती है उससे बन्ध होता भी है, और नहीं भी होता; परन्तु परिग्रहसे तो निश्चय ही बन्ध होता है। इसलिए श्रमण समस्त परिग्रहका त्याग करते हैं। (३, १९)
ण हि गिरवेक्खो चाओ ण हवदि भिक्खुस्स आसवविसुद्धी । अविसुद्धस्स य चित्ते कह णु कम्मोओ विहिश्रो॥
जबतक निरपेक्ष त्याग न किया जाय तबतक चित्तशुद्धि नहीं हो सकती; और जबतक चित्तशुद्धि नहीं तबतक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ?
(३, २०) किध तम्मि णस्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स।
तध परदम्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥ जो परिग्रहवान् है उसमें आसक्ति, आरम्भ या असंयम क्यों नहीं होगा? तथा जहाँतक परद्रव्यमें आसक्ति है, वहांतक आत्म-प्रसाधना किस प्रकार हो सकती है ? ( ३, २१)
सच्चा श्रमण
पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ ।
दसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो मणिदो ॥ जो पांच प्रकारकी समिति ( सावधान प्रवृत्ति )से युक्त है, जिसका मन, वचन और कार्य सुरक्षित है, जिसकी इन्द्रियां नियंत्रित हैं, जिसने • कषायोंको जीत लिया है, जिसमें श्रद्धा और ज्ञान परिपूर्ण हैं और जो संयमी है, वह श्रमण कहलाता है।
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो।
समकोठुकंचणो पुंण जीविदमरणे समो समणो । सच्चा श्रमण शत्र-मित्रमें, सुख-दुःखमें, निंदा-प्रशंसामें मिट्टीके ढेले और कंचनमें तथा जीवन और मरणमें समबुद्धिवाला होता है ।