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१०४ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
देह इस लोकमें या स्वर्गमें देही ( जीव ) को सुख नहीं देता; अपना प्रिय या अप्रिय विषय पाकर आत्मा स्वयं ही सुख-दुःखका अनुभव करता
पच्या इ8 विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण ।
परिणममाणी अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो।। इन्द्रियोंपर आश्रित प्रिय विषय पाकर स्वभावतः सुख-रूप परिणत होनेवाला आत्मा ही सुख-रूप बनता है; देह सुख-रूप नहीं है । (१,६५) हिंसा-अहिंसा
मरदु व जिवदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णस्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीसु ॥ जीव मरे या न मरे, फिर भी प्रमादपूर्वक आचरण करनेवालेको निश्चय ही हिंसाका पाप लगता है; परन्तु जो साधक अप्रमादी है; उसे यातनापूर्वक प्रवृत्ति करनेपर भी अगर जीव-वध हो जाय तो उसे उस हिंसाका पाप नहीं लगता। ( ३, १७)
अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु बंधगो त्ति मदो।
चरदि जदं जदि च्चं कमलं णिव जले णिरुवलेबो॥ जो श्रमण अयतना (असावधानी) के साथ प्रवृत्ति करता है, उसके द्वारा एक भी जीव न मरनेपर भी उसे छहों जीव-वर्गोंकी हिंसाका पाप लगता है। परन्तु वह अगर सावधानीके साथ प्रवृत्ति करता है तो उसके द्वारा जीवहिंसा हो जानेपर भी वह जलमें कमलकी भाँति निर्लेप रहता है । (३,१८) अपरिग्रह
हवदि व ण हवदि बंधो मदे हि जीवेऽध कायचेम्मि । बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छंडिया सन्वं ।।