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( ८३ )
कांति
( हँसकर ) घर से लड़कर तो नहीं आई हो आज ?
निरंजना
लड़ती किससे ? दोवारों से ?
कांति
दीवारों से क्यों ? अपने उनसे ।
निरंजना
यही तो तुम्हें मलूम नहीं है कि लड़ने का सौभाग्य भी धनियां की स्त्रियों को प्राप्त नहीं है । उस स्त्री को बड़ी भाग्यशालिनो समझो जो अधिकार के साथ कभी हँसकर कभी मान करके पति से कुछ कह सके ।
[ कांति सहसा चौंक पड़ती है । क्षण भर वह चकित-सी रह जाती है। उसका मुख-मंडल लाल हो जाता है । पश्चात वह सगर्भ निरंजना की ओर देखने लगती है । ]
कांति
मैं समझी नहीं आशय तुम्हारा ।
निरंजना
मेरा मतलब है कि धनी की नारी को तुम मृक और जड़ प्राणी समझो जिसे विलास की अन्य वस्तुओं के समान उन्होंने खरीदा है और जिसका पूर्ण उपभोग स्वामी की स्वेच्छा पर है । स्वयं स्त्री को इच्छा अ नच्छा से किसी बात में बोलने का कोई अधिकार नहीं रहता ।