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मालती देवी जी तो कहीं जाने को तैयार बैठी हैं इस लू-धूप में !
कांति हाँ. मैं तो तुम्हें बुलवानेवाली थी । चलोगी नहीं कीर्तन में ?
मालती कीर्तन में ! किसके यहाँ ! ( जैसे कुछ याद आ गया हो) मच्छा ! मैं समझी ! मुझे नहीं जाना है किसी के यहाँ !
कांति क्यों ? उनके यहाँ तो चलो ... बड़े भक्त आदमी हैं वे तो ! इतने बड़े होकर भी कितने मिलनसार हैं ! कितने हँसमुख।
मालती ( मुस्करा कर ) हाँ ss, बड़े मिलनसार हैं, बड़े भक्त हैं, बड़े हँसमुख, बड़े आदमी ऽऽ और · .... और... सब बातों में बढ़े-चढ़े हैं वे।
काति
( साश्चर्य ) तुम तो जैसे हँसी उड़ाती हो उनकी ?
मालती (संयत स्वर में ) हम छोटे आदमी किसी बड़े की हँसी कैसे उड़ा सकते हैं ? ( कांति उसकी ओर देखती रहती है ) हाँ, हमारी भी कळ इजत है. मर्यादा है।