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________________ निए दंड देना उन्हें-दंड की बात भी सोचना ; ममय स्वयं दंड दे देगा उन्हें ; सीख जायगे वे अपने आप---उचित या अनुचित है उनके औ' देश लिये क्या ? कच देखें पर कैसे अपमान गुरुजनों का इन आँखों से ; देव-देख रक्त खौलता है श्रन्यायियों को---निर्बल होगे जो वे भी कभी सहन न कर सकेंगे उद्दडता ऐमी । सुरगुरु परंतु सोचो जरा, तुम्हारी यह चेष्टा भी तो कहायगी उद्दडता ही। [मुमकराए श्राचार्य यों कह । बोले फिर उमी स्वर में बेटा, प्रसन्न हूँ मैं बड़ा साहस तुम्हारी देखकर और न्यायप्रियता भी तुम्हारी। पर दंड देने का अधिकार नहीं कोई---- स्वकर्तव्य ही बस पालना चाहिए हमें । कच कर्तव्य है मेरा क्या, सुझाएँ मुने आप ही।
SR No.010395
Book TitleKarmpath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremnarayan Tandan
PublisherVidyamandir Ranikatra Lakhnou
Publication Year1950
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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