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दमकता मुग्त्र मंडल श्रालोकित हुआ
उसका दिव्य प्रभा से ।
रविमडल उसी
क्षण हुा अस्त दूसरी श्रोर ; चकित हो, मुग्ध-से कुछ पुलकित-से ज्यों मूद लिए अनुरंजित नेत्र अपने सूर्य व ने ।
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मृदु मधुर कलरव छा गया नभ में विहंगम-वृंद जयजयकार करते जैसे दों मोद से । गौरव की उनके दिव्य अनुभूति ने प्रेरित किया सभी का ।
पिता सम्मुख खड़े थे उसके । उठती थीं
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गणित, वृद्ध हृदय में सुरगुरु के गर्व-गौरवयुक्त बलवती भावनाएँ ।
दोलित हृदय का द्वंद्व परिणत हो
चुका था सहज स्वर्गीय सुख में उनके ।
भव्य प्रभा - ज्योति-कलिका श्रहा ! खिल उठी ।
सरल श्रभिमान-जीवन से सिंचित-सी
होकर मुखोद्यान में ।
निमग्न हो गए वे
आनंदावि में; पा लिया चिरवांछित जैसे