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जलकर तप रहा था वीर, तपता है सुस्वर्ण नगराने से जलती आँच पर जैसे ।
देख रहे थे श्राचार्य भी पुत्र को अपने । गम्भीरता छा रहो यो मुख र उनके ; दिग्वलाई दे रही थी गर्व की एक श्राभा ; अनि पुलकित हो रहे थे वे सुन-सुन के गर्वोक्ति प्रिय प्राण सम पुत्र को अपने । बोले गंभीर गिरा---]
सुरगुरु भूल जाओ बेटा, अभी सभा के अपमान को उचित नहीं होगा ऐसे समय फँस जाना गृह कलह में ।
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भूलें ? भूलने की बात यह कैसं पिता जी ? बुझने की कैसे समुचित दंड दिए बिना, श्राग जो की ? बहती रहो हवा यह कहीं यदि देश में, गुरुजन तब तो नित्य ही इसी तरह अपमानित किए जायेंगे।
सुरगुरु ठीक है यह पर उचित नहीं तुम्हारे