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धधक रही है आग भवानक उर में मेरे, हे पिता जी, सुना है जब से. हुआ है साहस मुरेश का इतना, सामने करे जो आँख आपके।
[ श्राचार्य की ओर देखता हुअा अावेश से ] गेके रहा अब तक मैं अपने रोष को, अपने आपको-बढ़ती क्रोधाग्नि में जला जा रहा हूँ स्वयं ; आज्ञा दें मुझे अब आप ; तहस-नहस कर दूं सेना मैं अमरेश की।
[ शांत दृढ़ता से संयत करके स्वर को |
छूकर आपके श्रीचरण करता प्रण मैं - बाँध के सामने ला करूँगा खड़ा तत्काल ही शक्रपाणि को, अहंकारी भी सदा. कृतघ्नी भी बड़े जो।
। झुक गया युवक वह चरणों में पिता के । शीघ्र उठ खड़ा हुअा वह ; देखा पिता को अोर । काँप रहा था कच अति रोप से ; लाल हो रहा था मुग्ब उसका ; क्रोधाग्नि में