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कच
पिता जी!
[ मेंदे नेत्र की गुरुवर के, झुकी दाहनी पलक पर अटकी थी श्राधी बूद---गिरी थी आधी झपकने से नेत्र के धीरे धोरे, उलझ गई बालों में औ' फिर गिरी ।
सचेत हुअा कच शीघ्र हो, देखने लगा वह पिता को ओर ; निकला विस्मय से बड़े, उसके मुख से--]
कच
पिता जी ! आप अरे ! कर रहे हैं यह क्या ? दुखित हैं क्यों ऐसे ? [ स्वाभाविक सरलता से देखा श्राचार्य ने उनकी ओर ; सुस्कंध पर था कर वायाँ, । दाइने में लिए हुए वाम कर उसका। पूर्ण शांति मुखमंडल पर यी विराजती ; हास्य की मंद रेखा भी खिंचो हुई थी वहाँ । देखते रहे कुछ देर वे मुख उसका ; देवी एक बार निकली थी असि-धार जो; सोचते रहे कुछ, तब फिर गंभीर हुए, अथाह सागर दीखता शांत ऊपर ज्यों । ]