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ललककर लगा लिया लाल को छाती से ; चूम लिया अनि प्रेम से सुभाल उसका । छलक पाया प्रेम-वारि उनके दृगों में ; छलकता ज्यों अहा, नीरनिधि का नीर है देव प्रिय शशि पूर्ण को राका निशा के । किञ्चित् सङ्कोच से कहा पुत्र ने-]
पिता जी!
[ अनि प्रेम से लगन से बहुत फेरते हाथ थे वे शीश पर पुत्र के ; सुलझाने
थे कुछ उलझे हुए. कुछ बिग्वरे हुए बाल उमके, हिलते हुए कर की-पड़ी थीं झुर्रियाँ जिसमें श्रौ' कम्पन विशेष था उंगलियों से । रख दिया क्रमशः उन्होंने - मुख अपना उसके शीश पर, चूम के उसे फिर एक बार मृद लिए अपने नेत्र और तब फिर अचेत-मे हो गए ।
शान्ति मिली क्षण भर कन्च को भी इसमे पर शीघ्र, विकलता से किंचित, उसने सिमटते हुए कहा धीरे-धीरे ]