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देखा--प्रिय परम सुवन अाता दूर से, श्रभित-सा उठा रहा था पग जैसे गिन गिन कर । दाहना कर था उसका असि-मूठ पर; बाहर निकली हुई थी धार कुछ; चमकती थी वह विद्युत-सी घन श्थाम में । चञ्चलता-सी धूम रही थी नेत्र-दृष्ट, हूँढ़ती थी किसी को, हूँदता ज्यों फणी खोई निज मणि है विकलता से ।
अटक गई दृष्टि उसकी तरुवर के नीचे पूज्य खड़े थे जहाँ श्राचार्य उसके । देवने लगा वह और उनकी ध्यान से; . गड़ी नेत्र ज्योति चरणों में ; कर रहा हो प्रणाम जैसे विनय से नत हो, अथवा स्वागतार्थ पिता के आँखें बिछा दीं पुत्र ने ।
निकले वे अशोक के नीचे से अशोक हो, मुदित हो मोद जैसे ; पैर बढ़ने लगे, हाथ उठने लगे अपने आप उसके ।
स्वजन:-तुल्य राजीवलोचन राम से मिलने को बढ़े थे भरत ज्यों, बढ़ा त्यों ही कच भी वहाँ अातुरता से, विनम्रता से छूने चरण-कमल जनक के अपने ।